मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

अलविदा कहने की घड़ी आ गई हैं

की है मोहब्बत मैंने , इसमें खता आपकी तो नहीं

फिर कैसे इलज़ाम करूंगी की, सनम आपमें वफ़ा नहीं

खो जाते हैं इश्क के सफ़र में कुछ बदनसीब यहाँ

मैं भी उनमें से हूँ, कोई नयी नहीं


कभी मिले मुकद्दर से किसी राह में

तो नज़रे मिला के मुस्कराना भी नहीं

वरना समझदारों के शहर में समझेंगे लोग

इश्क में इनका भी कोई ज़माना नहीं


डायरी से फाड़ दिए थे कुछ दिन पहले करीब सैकड़ों पन्ने तेरे नाम के

इनको फिर से चिपकाने की बेकार कोशिश करूंगी जरुर

तुम मेरी प्रेरणा हों सदा से

इन पन्नों को पढ़कर कुछ करूंगी जरूर


अलविदा कहने की घड़ी गई हैं

वरना आप सोचेगे इतनी लम्बी गुफ्तगू की जरुरत ही नहीं

कुछ अरसे बाद छपेगी कुछ किताबे मेरी

तुम्हारे घर के पते पर भेजूंगी जरुर, पढ़ के दो आंसू भी बहाना नहीं

अलविदा

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