शनिवार, अप्रैल 10, 2010

नया प्रेम गीत

नया प्रेम गीत
गोधूली की मनोरम बेला
धरती की बांहों में
थकी प्रकृति हुई बाँहें डाले
मिल रही थी,
आलिंगनबद्ध,
पंछी घरोंदों में बैठे
बच्चों की नव चोंचों में
दाने डाल रहे थे,
प्रेमालाप करते हुए,
प्रियतमा को सुना रहे थे,
उनदिनों की दास्ताँ
"अकेली खड़ी थी,
इंतज़ार में
पहचानी सी नज़र
इसी सुनसान सड़क के बाजू वाले
अशोक के नीचे,
हाथों में दो सब्र के फूल लिए हुए,
कटीली टहनी को नाजुक से हाथों को पकडे हुए,
कभी कभार हवा का शीतल
झोंका गुजरता,
एक तरन्नुम होती,
आँचल फिसल कर हाथों की कोहनियों
के बीच आ जाता,
जैसे बालक फिसलपट्टी पर खेल रहा हैं,
बालों की घनेरी-बेसुद सी लटे
नाक से कानों तक
बोहें से खेलते हुए
इंतज़ार का दर्द बड़ा रही थी
मैं छत से
देख रहा जीवन का मधुर छण,
मगर मुझे नहीं देखा गया,
उसका इंतज़ार,
तो घुस गया घर की दीवारों में,
सुबह कुछ पाने की उम्मीद में,
मैं भी गया वहाँ
पड़े थे उजड़े हुए दो फूल
आंसुओं से भीगकर सूखा आँचल
घर ले आया में अमानत,
बीती रात बातों से
दुःख बहुत हुआ,
क्यों सताया मैंने?
पर क्या मालूम वह आई मेरे लिए?
दुसरे दिन वही स्थिति
वही तरन्नुम
वही हवाए
और लम्बा इंतज़ार
मैं होशोहवाश खो बैठा
जा खड़ा हुआ सामने
रो पड़ी बेजान सी मूरत
बाँहे गले में डालकर
सब पंछी घरोंदों से बाहर
अब नए सुर में
गा रहे थे ये नया प्रेम गीत?"
From-
विकाश राम
एमएनआईटी जयपुर

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