मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

अलविदा कहने की घड़ी आ गई हैं

की है मोहब्बत मैंने , इसमें खता आपकी तो नहीं

फिर कैसे इलज़ाम करूंगी की, सनम आपमें वफ़ा नहीं

खो जाते हैं इश्क के सफ़र में कुछ बदनसीब यहाँ

मैं भी उनमें से हूँ, कोई नयी नहीं


कभी मिले मुकद्दर से किसी राह में

तो नज़रे मिला के मुस्कराना भी नहीं

वरना समझदारों के शहर में समझेंगे लोग

इश्क में इनका भी कोई ज़माना नहीं


डायरी से फाड़ दिए थे कुछ दिन पहले करीब सैकड़ों पन्ने तेरे नाम के

इनको फिर से चिपकाने की बेकार कोशिश करूंगी जरुर

तुम मेरी प्रेरणा हों सदा से

इन पन्नों को पढ़कर कुछ करूंगी जरूर


अलविदा कहने की घड़ी गई हैं

वरना आप सोचेगे इतनी लम्बी गुफ्तगू की जरुरत ही नहीं

कुछ अरसे बाद छपेगी कुछ किताबे मेरी

तुम्हारे घर के पते पर भेजूंगी जरुर, पढ़ के दो आंसू भी बहाना नहीं

अलविदा

दिल कितना मजबूर होता हैं

दिल कितना मजबूर होता हैं
हमेशा इंतज़ार में राह ताकता हैं
इसको मालूम हैं कोई सरोकार नहीं उन्हें हमसे
फिर भी ये दीवाना प्यार करता हैं

सोंप जाता हैं मुझको गम-ऐ-तन्हाई
जिसपे दिल जान निशार करता हैं
रह जाता हूँ सहरा में खडा खुश्क पेड़
जो पानी की एक बूँद के लिए तड़फ उठता हैं

हर बार जख्म गहराते चले
हर बार नए अफ़साने जो बने
पूछुंगा जब मुलाक़ात होगी खुदा से
क्यूँ इस शहर में हर शख्स शराबी ही बने

सोचने का वक़्त था किसके पास
एक बार हाथ थाम लेने की कुव्वत थी किसके पास
नसीब हुआ मुझे वही जर्द मुर्झी हुई तकदीर
जिसपे मैं नहीं खींच सका आज तक कुछ लकीरें

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

मुझी में देख मिलेगा

तुमने शीशे में केवल -
अपना चेहरा ही देखा होगा
या शायद पूरी काया भी
पर तुम में मैंने जो देखा
वह तुम्हें शीशे में नहीं
मुझी में देख मिलेगा
उसका साक्षी वह दर्पण नहीं
यह दर्पण हैं


(
पुरुष की सापेक्षता में नारी की सार्थक पहचान और काम-वासना से मीलों ऊपर उठकर जीवन में नारी की सार्थकता की परिभाषा)
(किताब - तुम्हारा दर्पण मैं )

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

आपके शहर से जी घबराता हैं

आपके शहर में जी घबराता हैं
मगर
मेरी तम्मनाये हैं

मेरे खुरदरे , मैले से हाथों को तेरे हाथों से जोड़कर
साथ माँगने की
टूटते तारों से
मंदिर में बैठे श्याम से

आगन के बगीचे को तेरे साथ
बागवान बनकर
चमन बनाने की
तुलसा को सींचने की

हर बार तेरे आने जाने से पहले उम्मीदों से
घर को
सजाने की,
दिए जलाने की

साथ ख़रीदे हुए कपड़ों, महावर और कुमकुम से
दुल्हन बानाने की
शादी के मंडप में
तेरी मांग भरने की

आपके शहर में जी घबराता हैं
मगर
मेरी तम्मानाएं हैं
विकाश राम

कैद हैं जिंदगी

कैद हैं
जिन्दगी
जून में लू की एवज में घर में
दंगों में अस्मत बचाने की जुगत में

इंसान की पीड़ा एवं हवस
भारी कनस्तर सी
और रात में
तीक्ष्ण चमक वाली लाइटे से
प्रकृति को कैद करने की फिराक में

परन्तु प्रकृति फिर भी कर रही थी
प्रायश्चित,
रात के होने पर
और कोशिश हैं भोर किरण से बोझिल
आकाश को फिर से दीप्तिमान करने की
तरफ अग्रसर,

अब प्रकृति लेगी
प्रतिशोध
अनगिनत युद्धों
अनगिनत सरहदों
का सुनामी के रूप में

अब पटाक्षेप तो करना ही होगा
द्वंद्ध का
प्रकृति को पूजने का
ख्याल मानव हृद्रय में कब उठेगा
अब गर्मियों की बेचैन रातों
फासलों को पाटना हैं
प्रभात को बचाने के लिए|

विकाश राम

सोमवार, अप्रैल 12, 2010

इश्क के समंदर में

इश्क के समंदर में खो गया मैं कहीं
दूंढ़ लाओ खोज लाओ कहीं से तुम मुझे

समंदर की गहरे नापते हुए बीत गई सदियाँ
फिर भी तलछट इसकी मैं खोज पाया

खुदा मुझे गहराई में पहुचने से पहले निकाल ले
इसके अंत के साथ तेरी सीमाएं भी ख़त्म हो जाती हैं
फिर तू ही बता कौन मुझे बचाएगा .
-
विक्रमादित्य मीना
एमएनआईटी, जयपुर

फिर प्यार कैसे जताता

ख़ुशी इतनी मिली दामन में कैसे समेटता
काश आपका होता आँचल पास
तो भर देता,

बेगैरत की तरह ढूँढता फिरा था
बात करने की ख्वाहिश में
तम्मना थी तेरे सारे ग़म ले ले लेता,

आपसे मैं कैसे इंसानों की तरह व्यवहार करता
देवता मान लिया था मुझे
फिर प्यार कैसे जताता |


विकाश राम

शनिवार, अप्रैल 10, 2010

नया प्रेम गीत

नया प्रेम गीत
गोधूली की मनोरम बेला
धरती की बांहों में
थकी प्रकृति हुई बाँहें डाले
मिल रही थी,
आलिंगनबद्ध,
पंछी घरोंदों में बैठे
बच्चों की नव चोंचों में
दाने डाल रहे थे,
प्रेमालाप करते हुए,
प्रियतमा को सुना रहे थे,
उनदिनों की दास्ताँ
"अकेली खड़ी थी,
इंतज़ार में
पहचानी सी नज़र
इसी सुनसान सड़क के बाजू वाले
अशोक के नीचे,
हाथों में दो सब्र के फूल लिए हुए,
कटीली टहनी को नाजुक से हाथों को पकडे हुए,
कभी कभार हवा का शीतल
झोंका गुजरता,
एक तरन्नुम होती,
आँचल फिसल कर हाथों की कोहनियों
के बीच आ जाता,
जैसे बालक फिसलपट्टी पर खेल रहा हैं,
बालों की घनेरी-बेसुद सी लटे
नाक से कानों तक
बोहें से खेलते हुए
इंतज़ार का दर्द बड़ा रही थी
मैं छत से
देख रहा जीवन का मधुर छण,
मगर मुझे नहीं देखा गया,
उसका इंतज़ार,
तो घुस गया घर की दीवारों में,
सुबह कुछ पाने की उम्मीद में,
मैं भी गया वहाँ
पड़े थे उजड़े हुए दो फूल
आंसुओं से भीगकर सूखा आँचल
घर ले आया में अमानत,
बीती रात बातों से
दुःख बहुत हुआ,
क्यों सताया मैंने?
पर क्या मालूम वह आई मेरे लिए?
दुसरे दिन वही स्थिति
वही तरन्नुम
वही हवाए
और लम्बा इंतज़ार
मैं होशोहवाश खो बैठा
जा खड़ा हुआ सामने
रो पड़ी बेजान सी मूरत
बाँहे गले में डालकर
सब पंछी घरोंदों से बाहर
अब नए सुर में
गा रहे थे ये नया प्रेम गीत?"
From-
विकाश राम
एमएनआईटी जयपुर

कवि

कवि
भूलवश,
कवि स्वर्ग में पहुँच जाता है,
विचारों में वह इतना खोया हुआ है,
कि स्वर्ग की खूबसूरतियों की ओर
आँख तक उठाकर नहीं देखता।
स्वर्ग की हर अप्सरा उसे देखती,
और कहती है कि तू बड़ा विचित्र प्राणी है,
न तू शराब पीता है!
न तू नृत्य देखता है!
न मेरी ओर देखता है!
इस पर कवि उत्तर देता है,
कि मेरा मन स्वर्ग में नहीं लगता!
आकांक्षा की कसक मुझे कहीं चैन नहीं लेने देती।
जब मैं किसी रूपवान को देखता हूँ,
जो बजाय इसके कि,
मैं उसके रूप की सराहना करूँ,
या उससे आनन्दित होऊँ
मेरे मन में तुरन्त यह इच्छा उत्पन्न हो जाती है,
काश मैंने आपसे अधिक रूपवान,
को देखा होता।
विकाश ‘राम’

एक सपना

हे! इश्वर ये कैसा मोहपाश हैं , मैं जिसमे बड़ा चला जा रहा हूँ |

आज सुबह के चारे बजे हैं , मुझे नींद में कोई झिंझोड़ता हैं , पर वहा कोई नहीं नींद बहुत ही गहरी थी , शायद ट्रेन्स के आलावा किसी की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी , पर अब मेरी नींद उचट गई, ऐतिहात के तौर पर मैं रोहित के पास गया और पुछा की कही तुने तो नही जगाया था|

इंसानी फितरत को इस भ्रमित स्तिथि में मैंने कई बार देखा हैं, वह अजीब सी तरह मूक बन जाता और ठगे सा रह जाता हैं जब सच मालूम होता की कोई नाजुक डोर से बंधा अपनेपन की बाहों में जकड़ा हुआ सपना था और खो गया

मुझसे मेरी यह मन:स्तिथि देखी नहीं गई और लिखने बैठ गया| बिना किसी परवाह किये की आप क्या समझ ले, या आप मुझे डांटे या फिर मुझे इंस्पायर करे कोई डर या ख़ुशी नहीं हो रही हैं|

मुझे आपका डांटना भी अच्छा लगेगा अगर उसमे अपनेपन की महक होगी, और माफ़ करने की शक्ति और पूजा होगी|

अब सपने में जो करीब 3:57 प्रात: मेरी हड़बड़ी में टूट गया, यह करीब पांच या साड़े पांच का समय यह पहली बार नहीं था मगर आज कुछ ज्यादा ही निकट और सच्चाई के के समीपस्थ था.

आप मुझे नींद में पुकार रही थी मेरे पापा आ रहे हैं, आज अभी ट्रेन से, मुझे कुछ ज्यादा ही गहरी नींद आ रही, मैं उठने की कोशिश कर रहा था उससे पहले ही आप गायब थी|

इस मर्तबा आपने यह लाइन कई बार बोली, फिर कहा मैं उन्हें रेलवे स्टेशन से ले लाऊं,

फिर मैं जागा और चारो तरफ देखा की वाकई में यहाँ कौन इंसान आया था पर यह मेरा सपना था जो अब बिखर चूका था|

मैंने तहकीकात भी की किन्तु यह एक सपना ही था " यह जानकार भी मुझे अद्भूत आश्चर्य हुआ "|

और आपके जाने के बाद लिखने बैठ गया |

अब शकुन सा लग रहा हैं|

शुभ प्रभात!

विकाश राम

एमएनआईटी जयपुर